CRPF Bands
जब भी हम सीआरपीएफ का नाम सुनते हैं, हमारे मन में सबसे पहले कड़े अनुशासन वाले जवान, हथियार, बुलेट प्रूफ़ जैकेट और सीमा पर तैनाती की तस्वीरें आती हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इन्हीं जवानों में कुछ ऐसे भी हैं, जो अपने हाथों में बन्दूक के साथ‑साथ बाँसुरी, ढोल, शहनाई और हारमोनियम भी बजाते हैं? ये हैं सीआरपीएफ बैंड्स और सांस्कृतिक इकाइयाँ – जो ना केवल देश की सुरक्षा करते हैं बल्कि अपनी कला, संगीत और संस्कृति से लोगों के दिलों को भी छू जाते हैं। आज हम इसी अनकही कहानी को आसान शब्दों में जानेंगे – ताकि हर पाठक महसूस कर सके कि सीआरपीएफ केवल एक सुरक्षा बल नहीं, बल्कि एक सजीव सांस्कृतिक परिवार भी है।
सीआरपीएफ का उद्देश्य सिर्फ देश की रक्षा करना नहीं है, बल्कि देशवासियों के दिलों में भी अपनी जगह बनाना है। इसी सोच से सीआरपीएफ बैंड्स और सांस्कृतिक इकाइयों की शुरुआत हुई। अनुशासित संगीत और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के ज़रिए सीआरपीएफ अपने मानवीय चेहरे को सामने लाता है। जब कोई जवान वर्दी पहनकर बैंड की धुन बजाता है या सांस्कृतिक दल किसी गाँव में नाटक करता है – तब लोग सीआरपीएफ को केवल हथियार चलाने वाला बल नहीं, बल्कि अपने जैसा एक संवेदनशील इंसान भी समझने लगते हैं। यही “मृदु शक्ति” का असर है – जो दिलों को जोड़ता है और भरोसा बढ़ाता है।
सीआरपीएफ बैंड्स – आज़ादी के बाद सीआरपीएफ में यह महसूस हुआ कि अनुशासन के साथ‑साथ संगीत का भी विशेष स्थान होना चाहिए। इसी से सीआरपीएफ बैंड की शुरुआत हुई। शुरू में इसका काम केवल सरकारी समारोहों और परेड तक सीमित था, लेकिन धीरे‑धीरे इसने और भी महत्वपूर्ण भूमिका निभानी शुरू कर दी। आज सीआरपीएफ के पास पीतल वाद्य यंत्रों वाला बैंड, पाइप बैंड, जाज़ बैंड जैसे कई रूप हैं। ये राष्ट्रीय पर्वों, गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस, पुलिस स्मृति दिवस, पासिंग आउट परेड, स्थानीय मेलों और उत्सवों में अपनी प्रस्तुतियाँ देते हैं। इनका उद्देश्य केवल धुन बजाना नहीं, बल्कि लोगों में एकता, उत्साह और गर्व की भावना को बढ़ाना भी है।
वही जवान जो सुबह कठिन प्रशिक्षण करता है, वही शाम को मंच पर खड़ा होकर बाँसुरी या ढोल बजाता है। उनके लिए संगीत केवल शौक नहीं, बल्कि अनुशासन और आत्मा का हिस्सा है। एक जवान कहता है – “जितनी मेहनत हम राइफ़ल चलाने में करते हैं, उतनी ही लगन से बांसुरी या ढोल भी सीखते हैं।” यही लगन और प्रेम इस बैंड को ख़ास बनाता है।
सीआरपीएफ की सांस्कृतिक टीमें सिर्फ गीत‑नृत्य करने के लिए नहीं बनाई गईं। इनका असली उद्देश्य आम लोगों के दिलों को छूना और सुरक्षा बल की मानवीय छवि दिखाना है। इन इकाइयों में लोक नृत्य, देशभक्ति गीत, नुक्कड़ नाटक और कविताएँ शामिल होती हैं। खास बात यह है कि ये टीमें दूर‑दराज के गाँवों में भी जाती हैं, जहाँ लोग सीआरपीएफ को सिर्फ एक हथियारबंद बल मानते हैं। जब जवान स्थानीय भाषा में लोक गीत गाते हैं या किसी सामाजिक विषय पर नाटक करते हैं, तो गाँव के लोग उनसे आत्मीयता महसूस करने लगते हैं। यही अपनापन आतंकवाद या नक्सल जैसी कठिन परिस्थितियों में भी बड़ा बदलाव लाता है।
सीआरपीएफ बैंड्स और सांस्कृतिक इकाइयों में शामिल जवान केवल कलाकार नहीं, बल्कि पूरी तरह से प्रशिक्षित सैनिक भी हैं। दिन में वे सीमा पर सुरक्षा ड्यूटी निभाते हैं, गश्त करते हैं, कभी‑कभी मुश्किल इलाकों में तैनात रहते हैं – और फिर भी शाम को वे बैंड या सांस्कृतिक प्रस्तुति की तैयारी करते हैं। यह आसान काम नहीं है, पर इन्हीं के कारण सीआरपीएफ की छवि सिर्फ एक “सख्त बल” तक सीमित नहीं रहती, बल्कि दिलों को जोड़ने वाली भी बनती है।
लोग जब किसी आयोजन में सीआरपीएफ बैंड या सांस्कृतिक टीम को देख कर ताली बजाते हैं, तब उन्हें यह नहीं पता होता कि उसके पीछे कितने घंटे की मेहनत, कई बार थकान और चोट भी छुपी होती है। लेकिन जब मंच पर संगीत की धुन बजती है और लोग मुस्कुराते हैं – तो वही पल सारी थकान को दूर कर देता है।
कई जवान बताते हैं कि संगीत और कला सिर्फ हुनर नहीं, बल्कि मानसिक तनाव को कम करने का भी सबसे अच्छा तरीका है। कठिन तैनाती या लंबे ऑपरेशन के बाद जब वे बैंड की रिहर्सल करते हैं, तो उन्हें शांति और नई ऊर्जा मिलती है। इसी कारण सीआरपीएफ के वरिष्ठ अधिकारी भी इस पर ज़ोर देते हैं कि बैंड और सांस्कृतिक टीमें सक्रिय रहें।
जब सीआरपीएफ की सांस्कृतिक टीम किसी दूर के गाँव में जाती है, और वहां के लोगों की भाषा में गीत गाती या नाटक करती है – तो लोग सीआरपीएफ को सिर्फ सुरक्षा बल नहीं, अपना समझने लगते हैं। कई बार गाँव के बुज़ुर्ग कहते हैं – “आप हमारे बीच आकर गाते हैं, यही सबसे बड़ा भरोसा है।” यही है असली सफलता।
कई जवान जो पहले केवल सामान्य ड्यूटी पर थे, उन्होंने अपनी कला के कारण बैंड या सांस्कृतिक इकाई में जगह बनाई। किसी ने बचपन से ढोल बजाना सीखा, किसी ने ड्यूटी के साथ‑साथ सीखा। एक जवान कहता है – “पहले मैं सिर्फ हथियार चलाना जानता था, अब मैं बाँसुरी भी बजा सकता हूँ – और दोनों पर मुझे उतना ही गर्व है।”
आज पूरी दुनिया में यह समझा जाने लगा है कि केवल शक्ति से नहीं, बल्कि संस्कृति और कला से भी दिल जीते जाते हैं। सीआरपीएफ की सांस्कृतिक इकाइयाँ इसका सजीव उदाहरण हैं। जब ये टीमें गीत, नृत्य और नाटक से लोगों को जोड़ती हैं, तब हिंसा और डर की दीवारें भी कमजोर हो जाती हैं।
सीआरपीएफ के ये जवान सिर्फ सख्त अनुशासन वाले सैनिक नहीं, बल्कि दिल से कलाकार भी हैं। उनकी परेड की तेज़ चाल और संगीत की मधुर धुन – दोनों में एक ही आत्मा झलकती है। यही भारतीय संस्कृति की सुंदरता है – शक्ति और कला का साथ‑साथ चलना।
सीआरपीएफ बैंड और सांस्कृतिक इकाइयों को कई बार राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया गया है। गणतंत्र दिवस परेड में सर्वश्रेष्ठ बैंड का पुरस्कार, पुलिस स्मृति दिवस पर विशेष सम्मान और कई बार अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी प्रस्तुति का अवसर। लेकिन इनके लिए सबसे बड़ा पुरस्कार वही है – जब लोग दिल से ताली बजाते हैं और मुस्कुराते हैं।
एक जवान कहता है – “जब मैं मंच पर बांसुरी बजाता हूँ, तब मुझे लगता है मैं सिर्फ सैनिक नहीं, बल्कि अपने देश की आवाज़ भी हूँ।” यही भावना उन्हें थकान और कठिनाई के बावजूद आगे बढ़ाती है।
सीआरपीएफ बैंड्स और सांस्कृतिक इकाइयाँ सिर्फ मनोरंजन के लिए नहीं हैं – ये लोगों के दिलों में अपनापन जगाती हैं, समाज को जोड़ती हैं और सुरक्षा बल की असली मानवीय तस्वीर दिखाती हैं। वर्दी के पीछे भी एक दिल है – और वह तब सबसे ज़्यादा नज़र आता है जब वही जवान अपने सुरों और शब्दों से दिलों को जोड़ते हैं। यही है सीआरपीएफ की असली पहचान – अनुशासन, समर्पण और दिल की धड़कन। सलाम उन असली नायकों को – जो ज़रूरत पड़ने पर हथियार भी उठा सकते हैं और बाँसुरी भी बजा सकते हैं।
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